शुक्रवार, 8 मई 2020

कांडा गॉव (उत्तराखंड के चमोली जिले का गांव)


काण्ड़ा गाॅव
(उत्तराखंड के चमोली जिले का गांव)

कुलदेवी माॅ बाला त्रिपुरसुन्दरी

ड़िमरी मूल रूप से द्रविड़ ब्राह्मण हैं जो सन्तोली कर्नाटक से शंकराचार्य के साथ सहायक अर्चक के तौर पर आकर गढ़वाल में कर्णप्रयाग के पास पट्टी तली चाॅदपुर डिम्मर गाॅव में बस गये । गाॅव के नाम पर ही यह जाति ड़िमरी कहलायी । यह सरोलाओं की एक प्रमुख जाति है जिसे पंडित राजेन्द्रबलभद्र ने बसाया था । डिम्मर गाॅव में बसे डिमरी जाति के कुछ सदस्य डिम्मर गाॅव से विस्थापित होकर अन्य गाॅवों जैसे काण्ड़ा, लंगासू, कालेश्वर और अन्य निकटवर्ती गाॅवों में विस्थापित हो गयेे।

काण्ड़ा गाॅव
काण्ड़ा गाॅव भारत में उत्तराखण्ड़ राज्य के अन्तर्गत गढवाल मण्ड़ल के चमोली जिले मे स्थित है । गाॅव उप-जिला मुख्यालय कर्णप्रयाग से 18 कि0मी0 और जिला मुख्यालय गोपेश्वर, चमोली से लगभग 63 कि0मी0 दूर है। गाॅव का कुल भोगोलिक क्षे0फ0 लगभग 84.80 हेक्टेयर है। गाॅव के सुन्दर प्राकृतिक नजारे मन को मोह लेते हैं। गाॅव में लगभग 42 घर हैं। इस गाॅव के लोग बहुत उदारवादी होते हैं और शान्तिपूर्ण तरीके से रहते है। गाॅव का मुख्य ब्यवसाय कृषि है। अभी यह गाॅव औधोगिक विकास से दूर है। उच्चस्तरीय शिक्षा, पक्की सड़क और स्वास्थ्य सेवा इस गाॅव की मुख्य चिंता है। गाॅव के आस-पास अन्य गाॅव भी है जैसे मैखुरा, चौंडी , सेरगाड़ आदि। गाॅव के निकटपर्ती महत्वपूर्ण स्थान निम्नलिखित हैंः-
निकटतम कस्बा          :-      लंगासू, कर्णप्रयाग 
निकटतम रेलवे स्टेशन  :-      ऋषिकेश 
निकटतम हवाई अड्डा    :-      जाॅली ग्राॅट देहरादून

श्री नन्द डिमरी जी संवत् 1921 माघ महीने की आठ गते तदनुसार 19 जनवरी सन् 1865 में ड़िम्मर मूल गाॅव से काण्ड़ा गाॅव आये थे। श्री नन्द के दो पुत्र थे श्री गंगाराम और श्री नन्दराम। आज उनके वंशज गाॅव में रहते हैं। ड़िम्मर गाॅव से आये श्री नन्द जी के साथ बर्तन बनाने के लिये श्री गुन्द्रू लाल जी आये जो चौंडी गाॅव में रहने लगे। ये जाति के टमटाए ताॅबा.पीतल के बर्तन बनाने वाले थे काण्ड़ा गाॅव में इन्होने लोहार का काम भी किया और इनके कुछ वंशजों ने यह परंपरागत कार्य जारी रखा और आज भी यह कार्य कर रहै हैं। भगवान बद्रीनाथ की प्राचीन परंपराओं को निभाने में आज भी डिमरी पंचायत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है संवत् 1947 में श्री बद्रीनाथ धाम के तत्कालीन रावल श्री पुरूषोत्तम नम्बूरी द्वारा अपने शिष्यों दुकचण्ड़ी और चन्द्रा मिश्रा को आदेश पत्र दिया जिसमें लिखा है कि आज से पं0 गंगाराम जी तथा भविष्य में इनकी आस.औलाद तुम्हें सुफल देंगे तथा तुम लोगों के वंशजों का ग्रहदान भी लेंगी।

निकटवर्ती नगरः-
कर्णप्रयाग और लंगासू काण्ड़ा गाॅंव के समीपवर्ती नगर है जहाॅ से ग्रामीण अपनी दैनिक जीवन की वस्तुओं की आपूर्ति करते हैं। कर्णप्रयाग उत्तराखण्ड़ के गढ़वाल मण्ड़ल के चमोली जिले का नगर है। यह अलकनन्दा और पिण्ड़र नदियों के संगम पर बसा है। पिण्ड़र का एक नाम कर्ण गंगा भी है। जिसके कारण ही इसका नाम कर्णप्रयाग पड़ा। यहाॅ पर उमा देवी मन्दिर और कर्ण मन्दिर दर्शनीय है। कर्णप्रयाग का नाम कर्ण के नाम पर है जो महाभारत के पात्र थे। यह माना जाता है कि यहाॅ देवी गंगा तथा भगवान शिव ने कर्ण को साक्षात दर्शन दिये थे।

पौराणिक रूप से कर्णप्रयाग की सम्प्रभता उमा देवी (पार्वती) से भी है। यहाॅ पर उमा देवी मन्दिर है जिसकी स्थापना 8 वीं शदी में शंकराचार्य द्वारा की गयी थी। मान्यता है कि उमा देवी का जन्म ड़िमरी ब्राहा्रण के घर संक्रीसेरा के एक खेत में हुआ था जो बद्रीनाथ के अधिकृत पुजारी थे और इसे ही उनका मायका माना जाता है तथा कपरी पट्टी का शिव मन्दिर उनका शसुराल माना जाता है। कर्णप्रयाग के अतिरिक्त गोपेश्वर, चमोली, श्रीनगर, ऋषिकेश, देहरादून निकटवर्ती नगर हैं।

रहन-सहनः-
काण्ड़ा गाॅव एक पर्वतीय क्षेत्र हैं। गाॅव में पक्के मकान हैं। दीवारें पत्थरों की होती है। पुराने घरों की छतें पत्थर के स्लेटों की बनी होती है। वर्तमान में लोग सीमेन्ट के घरो का निर्माण कर रहै है जिससे परम्परागत घर कम ही देखने को मिलते हैं जो पुराने घर नजर आते हैं उनकी स्थिति भी ठीक-ठाक नही है। अधिक्तर घरों में दिन में चाॅवल और रात में रोटी खाने का प्रचलन है। प्राचीन काल में मण्डुवा व झंगोरा स्थानीय मोटा अनाज होता था। अब इनका उत्पादन बहुत कम होता है। लोग बाजार से गैंहू और चाॅवल खरीदते हैं। कृषि के साथ पशुपालन लगभग सभी घरों में होता है। घरों में उत्पादित अनाज कुछ ही महीनोे के लिये पर्याप्त हो पाता है यही कारण है कि गाॅव में कृषि धीरे-धीरे समाप्त हो रही है और लोग शहरों की और पलायन कर रहै हैं। 

संस्कृतिः-
संगीत किसी भी की संस्कृति का अभिन्न अंग होता है। ड़िमरी जाति के लोगों की प्राचीन परंपरा की जड़े मुख्य रूप से धर्म से जुड़ी हुई हैं। संगीत, नृत्य एवं कला यहाॅ की संस्कृति को हिमालय से जोड़ती है। गीतों एवं नृत्यों का सामुदायिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है । प्राचीन समय में मनोरंजन के साधन नहीं थे । लोकगायक ग्राम वासियों को लोक कथाएं सुनाते और गीत गाते थे। यहाॅ के लोक साहित्य में लोकोक्तियाॅ, मुहावरे तथा पहेलियाॅ आज भी प्रचलन में है।  पहले लोग मनोरंजन के लिये पर्व और त्योहारों पर एकत्र होकर स्थानीय गीत गाते और नृत्य (चाॅचरी, झुमेलो) करते थे। रामलीला, पांड़व नृत्य, नन्दा देवी के गीत, खुदेड़ गीत, मंगल गीत आदि यहाॅ के लोकप्रिय लोकगीत थे किन्तु धीरे-धीरे गाॅव से पलायन होने के कारण यह परम्परा विलुप्त सी हो गयी है। स्थानीय देेवी-देवताओं का आवाहन जागरों एवं मंत्रो के माध्यम से किया जाता है। गीत एवं नृत्यों का साथ ढा़ेल एवं दामों निभाते हैं जिसे दास कहे जाने वाले विशेष जाति के लोग बजाते हैं। उत्तखण्ड़ के अन्य क्षेत्रों के समान काण्ड़ा गाॅव में भी वर्ष भर उत्सव मनाये जाते हैं। भारत के प्रमुख उत्सवों जैसे दीपावली, होली, दशहरा इत्यादि के अतिरिक्त यहाॅ के कुछ स्थानीय त्योहार हैं जैसे फूलसंक्रान्ति, घीसंक्रान्ति, गोचर मेला, नन्दा देवी राजजात यात्रा (जो हर 12 वर्ष में होती है) ।

कुलदेवी-देवताः-
कुलदेवी और देवता कुल या वंश के रक्षक देवी देवता होते हैं।  ये घर-परिवार या वंश परंपरा के प्रथम पूज्य देव होते हैं। प्रत्येक कार्य में इन्हे याद करना आवश्यक होता है। भारतीय लोग हजारों सालों से अपनी कुल देवी और देवता की पूजा करते आ रहै हैं। जन्म, विवाह आदि मांगलिक कार्यो में कुलदेवी और देवताओं के स्थान पर जाकर उनकी पूजा की जाती है ।


माॅ बाला त्रिपुरसुन्दरी ड़िमरी जाति की कुलदेवी हैं। । ब्रहमाण्ड़ पुराण में माॅ बाला त्रिपुरसुन्दरी का उल्लेख ललिता महात्म्य के अध्याय 26 में किया गया है। जहाॅ वह धनु दानव की सैनाओं के खिलाफ लड़ाई में सामिल होती है। । बाला त्रिपुरसुन्दरी भगवान कामेश्वरा की पत्नी हिन्दु देवी त्रिपुर सुन्दरी की बेटी हैं। उनका रूप एक नौ वर्षीय बालिका का है । माॅ बाला त्रिपुरसुन्दरी के चार हाथ है।


भैरवनाथ ड़िमरी जाति के आगत देवता हैं। वह पूरे भारत, नेपाल, श्रीलंका के साथ-साथ तिब्बती बोद्व धर्म में भी पूजे जाते हैं। भैरव का अर्थ होता है भय का हरण कर जगत का भरण करने वाला। इन्हें भय को नष्ट करने वाले देव के रूप में भी जाना जाता है। शिवपुराण के अनुसार कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को मध्यान्ह में भगवान शंकर के अंश से भैरव की उत्पत्ति हुई थी। भैरव शिव के गण और पार्वती के अनुचर माने जाते हैं। हिन्दु देवी देवताओं में भैरव का बहुत महत्व है। 

बोल-चाल की भाषाः-
काॅण्ड़ा गाॅव के निवासियों की मात्रभाषा गढवाली है। यहाॅ के निवासी गढ़वाली और हिन्दी भाषा बोलते है।  गढ़वाली केन्द्रीय पहाड़ी उपसमूह की एक इंड़ो-आर्यन भाषा है। यह मुख्य रूप से भारतीय हिमालय के उत्तरी राज्य उत्तराखण्ड़ के गढ़वाल क्षेत्र में बोली जाती है। गढवाली एक लुप्तप्राय भाषा नहीं है फिर भी यह यूनेस्को की दुनिया की भाषाओं के एटलस में असुरक्षित/खतरे के रूप में नामित है जो इंगित करता है कि भाषा को संरक्षित करने की आवश्यकता है। गढ़वाली भाषा के प्रारम्भिक रूप का पता 10 वीं शताब्दी से लगाया जा सकता है। इसका उदाहरण देवप्रयाग के राजा  जगतपाल का मंदिर अनुदान शिलालेख (1335 ईस्वी) है। गढ़वाली साहित्य का अधिकांश भाग लोकरूप में संरक्षित है जिसे मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढी सौंप दिया जाता है। आधुनिकीकरण का प्रभाव भाषा पर भी देखा जा सकता है वर्तमान में नौजवान पीढ़ी गढ़वाली और हिन्दी के साथ-साथ अंगे्रजी भाषा भी बोलते हैं।

शिक्षाः-
काण्ड़ा गाॅव का साक्षरता दर 93 प्रतिशत हैं । गाॅव में एक प्राथमिक विद्यालय और एक ईण्टर कालेज है। आगे की शिक्षा के लिये विद्यार्थियों को कर्णप्रयाग, गोपेश्वर और श्रीनगर आदि नजदीकी कस्बों में जाना होता है।

ब्यवसायः-
काण्ड़ा गाॅव के निवासियों का मुख्य ब्यवसाय कृषि और पशुपालन है किन्तु वर्तमान में अधिकतर लोग नौकरी कर रहै हैं । गाॅव में सीढीनुमा खेतो पर कृषि की जाती है। परंपरागत तौर पर गेंहू चाॅवल मडुआ झंगोरा के अलावा चैलाई गैथ तथा सोयाबीन की खेती की जाती थी और ये फसलें उनके जीवन को चलाने का जरिया होती थी । स्थानीय फसलों के अतिरिक्त गाॅव में सन्तरे खुमानी काफल नींबू अनार अखरोट आदि फलदार वृक्ष पाये जाते है। प्राचीन समय में काण्ड़ा गाॅव के निवासी स्थानीय उत्पादों को अपने भोजन का हिस्सा बनाते थे। एक समय मे मॅडुवे की रोटी हर घर में खायी जाती थी जो धीरे-धीरे स्थानीय लोगों की ड़ाईट से बाहर निकलती जा रही है। गाॅव की खेती लगभग समाप्त हो रही है। पिछले एक दशक में पारंपरिक फसलें प्रभावित हो चुकी हैं। इसका मुख्य कारण लोगों का पलायन है। अध्यन्न से पता चला है कि खेती वाली भूमि का उपयोग दिन प्रतिदिन घट रहा है। किसानों को अपनी मेहनताना भी नहीं मिल पा रहा इस कारण गाॅव से रोजी रोटी की तलाश में लोग शहरो की और पलायन कर रहे है। 

परिवहनः-
काण्ड़ा गाॅव को लिंक रोड़ कर्णप्रयाग और सौनला में राष्टीय राजमार्ग-58 से जोड़ते है। लोक निर्माण विभाग द्वारा यहाॅ सड़क बनाने का कार्य प्रगति पर है। अभी तक गाॅव को राष्टीय राजमार्ग-58 से जोडने वाली सड़क का डामरीकरण नहीं हो पाया है। कार्य के प्रति सरकार और लोक निर्माण विभाग की उदासीनता इसका मुख्य कारण है। बरसात के मोसम में भूस्खलन होने से सड़क अधिकतर बन्द रहती है। गाॅव के कुछ महत्वपूर्ण स्थानों की दूरियाॅं निम्नलिखित हैंः-
निकटतम कस्बा          :-      लंगासू 03 कि0 मी0, कर्णप्रयाग 13 कि0 मी0
निकटतम रेलवे स्टेशन :-      ऋषिकेश गाॅव से लगभग 217 कि0मी0
निकटतम हवाई अड्डा  :-      जाॅली ग्राॅट देहरादून गाॅव से लगभग 330 कि0मी0 ।

पारम्परिक ब्यंजनः-
पहाड़ी भोजन न सिर्फ स्वाद में आगे है बल्कि यह पोष्टिक भी होता है। काण्ड़ा गाॅव के निवासियों के खान-पान में विविधता का समावेश देखने को मिलता है। ज्यादातर फसलें मोटे अनाज की होती हैं जैसे गेंहूॅ, धान, मडुवा, झगोरा, तिल, इन्हीं अनाजों से यहाॅ पोष्टिक व स्वादिष्ट भोजन बनाये जाते हैं। शादी-ब्याह के मोके पर चाॅवल के आटे से बनने वाले अरसे व पिसी हुई उड़द से बनी पकोड़ियाॅ सभी को भाती हैं। भाॅग की चटनी, गहत के पराठे, आलू का झोल, बाड़ी, काफली, फाॅणु का साग, बाड़ी, चैंसा, रौटाने, अरसा, कछमौली, झॅगोरे की खीर, कंड़ाली का साग यहाॅ के मुख्य पकवान है।
                              काफली           कंड़ाली का साग         चैंसा                              रौटाने

 परंपरागत परिधान एवं आभूषणः-
वस्त्र किसी भी क्षेत्र और समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि को परिलक्षित करते हैं। वस्त्रों से इतिहास के पहलुओं और संबंधित क्षेत्र के भोगोलिक परिवेश का आकलन भी होता है। हर समाज की तरह कांण्ड़ा ग्राम के निवाशियों का पहनावा भी यहाॅ की प्राचीन परंपराओं, लोक विश्वास, रीति रिवाज, भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक  स्थिति को प्रतिबिंब करता है। महिलाओं का परंपरागत परिधान लव्वा होता था जो जाड़े में एक कंबलनुमा ऊनी वस्त्र होता है। गर्मियों में महिलायें धोती पहनती है। परंपरागत आभूषण सोने और चाॅदी के बने होते हैं। महिलाये बुलाक, नथनी, गुलबन्द, मुर्खली, बाली, बुलाक, नथ, मांगटीका, फुल्लीए पौंछी, कड़ा, अंगूठी, पायल, लाकेट, पुलिया/बिछिआ, हॅसुली और धागुली (चाॅदी का आभूषण) जैसे आभूषण धारण करती हैं। समय के साथ पहनावे में भी परिवर्तन आया और वर्तमान में महिलायें ब्लाउज, पेटीकोट और साड़ी पहनती है। पुरूषों का परंपरागत परिधान कुर्ता, पैजामा, धोती, गढवाली टोपी और बास्कट आदि पहनते थे । बच्चे को झगुली, घाघरा, संतराज आदि पहनाने की पंरंपरा थी। कलांतर में शिक्षा, तकनीकी क्षेत्र में उन्नति और आवागमन के साधनों का प्रभाव वस्त्र और आभूषणो पर भी पड़ा है। नतीजा धीरे धीरे लोग परंपरागत पहनावे का त्याग करने लगे।  

गाॅव के मुख्य वाद्य यंत्रः-
वाद्य यंत्र का प्रयोग संगीत की ध्वनि निकालने के प्रयोजन के लिये होता है। वाद्य यंत्र का इतिहास मानव संस्कृति की शुरूआत से प्रारम्भ होता है। उत्तराखण्ड़ में लोक संगीत की समृद्व परम्परा रही है। उत्तराखण्ड़ की लोक धुनें भी अन्य प्रदेषों से भिन्न है। काण्ड़ा गाॅव के वाद्य यंत्रों में ढोल, दमाऊ, नगाड़ा, रणसिंग हुड़का, डौरी, कांसे की थाली, मसकबीन, हारमोनियम, भॅकोरा प्रमुख होते हैं।

डिमरी जाति की अधिक जानकारी के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें।
https://rajnishdimri.blogspot.com/

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्छा इतिहास है डिमरी लोगों का

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही रमणीक इतिहास मैजर साहब

    जवाब देंहटाएं